भाग 1: शैक्षिक सुधार और स्थानीय प्रशासन : बिहार में एक अध्ययन
1 January 1970
भारत की स्थानीय नौकरशाही भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद, नागरिकों की उपेक्षा, कोशिशों की कमी और अत्यधिक गैरहाजिरी के लिए बदनाम है। यह ब्लॉग बिहार के स्थानीय शिक्षा प्रशासन के बारे में एक वर्ष तक किए गए गुणात्मक अध्ययन के निष्कर्षों पर आधारित है। इसमें शिक्षा क्षेत्र के पदानुक्रम में अपनी भूमिका के बारे में स्थानीय सरकारी कर्मचारियों के दृष्टिकोण और उनके रोज़मर्रा के व्यवहार पर संगठनात्मक ढांचे और कार्यसंस्कृति के प्रभाव का अध्ययन किया गया है।
ब्लॉग दो हिस्सों में है-यह पहला भाग है
भारत में स्थानीय प्रशासक होने का क्या अर्थ है? पिछले दो दशकों में भारत की स्थानीय नौकरशाही पर हुए अध्ययनों के मुताबिक देश में स्थानीय नौकरशाही की पहचान है-अत्यधिक गैरहाजिरी, प्रयासों की कमी, नागरिकों के प्रति उपेक्षा का भाव और भ्रष्टाचार तथा भाई-भतीजावाद(Beteille,2009, Chaudhary et al. 2006. Das et al.2008,Murlidharan et al. 2014, Wade 1985) इसलिए प्रिचे और वूलकॉक (2004) का विचारोत्तेजक विश्लेषण है कि भारत में (और कई अन्य विकासशील देशों में भी) स्थानीय नौकरशाही “अंतत: सरकार जैसी नज़र आती है” जो बनी तो है औपचारिक, सुव्यवस्थित नियमों के आधार पर काम करने और पदानुक्रम तथा तय ढांचे का पालन करने के लिए, लेकिन व्यवहार में संरक्षणवाद और घूसख़ोरी के सिद्धांतो से संचालित होती है।
लेकिन इन सभी अध्ययनों में एक संगठन के रूप में स्थानीय नौकरशाही के स्वरूप – इसके संस्थागत ढांचे, आंतरिक कार्यसंस्कृति और निर्णय प्रक्रियाओं- तथा रोज़मर्रा के कामकाज और कार्य-निष्पादन के दौरान स्थानीय कर्मचारियों के दृष्टिकोण, और व्यवहार पर इसके प्रभाव का कोई खास विश्लेषण नहीं किया गया है। दूसरे शब्दों में इस बारे में बहुत कम जानकारी है कि स्थानीय कर्मचारी प्रशासक के रूप में अपनेआप को कैसे देखते हैं और इस आत्मछवि से उनके कामकाज पर क्या प्रभाव पड़ता है।
इस कॉलम में, हमने बिहार में शिक्षा विभाग की स्थानीय नौकरशाही पर किए अपने एक वर्षीय गुणात्मक शोध अध्ययन (जुलाई, 2014-अगस्त, 2015) के निष्कर्षों की रिपोर्ट प्रस्तुत की है। हमने शिक्षा प्रशासन के स्थानीय अधिकारियों (ब्लॉक शिक्षा अधिकारियों, क्लस्टर रिसोर्स सेंटर समन्वयकों और प्रधानाध्यापको) के 100 से ज़्यादा गहन साक्षात्कार किए और पाँच महीनों तक चार क्लस्टर रिसोर्स सेंटर समन्वयकों के साथ समय के उपयोग संबंधी विस्तृत अध्ययन[i] किया। हमने अपने अध्ययन में यह समझने की कोशिश की है कि स्थानीय सरकारी अधिकारी अपनी भूमिका और जिम्मेदारियों, उच्चाधिकारियों के साथ अपने सम्बन्धों, सरकारी स्कूलों के कामकाज और सरकारी स्कूलों के कामकाज में सुधार के लिए सरकार द्वारा किए जाने वाले विभिन्न उपायों के असर के बारे में क्या सोचते हैं और संगठनात्मक ढांचे और कार्य-संस्कृति से उनका रोज़मर्रा का व्यवहार कैसे तय होता है।
दो हिस्सों के इस ब्लॉग के पहले भाग में हमने साक्षात्कारों और समयोपयोग संबंधी अध्ययनों के आधार पर स्थानीय प्रशासन के परिवेश के बारे में अपने निष्कर्ष और उनकी व्याख्या प्रस्तुत की है। अगले भाग में, सुधार के प्रयासों के प्रति स्थानीय प्रशासन की प्रतिक्रिया और सुधारों के संस्थानीकरण तथा परिमाण पर इस परिवेश के असर से जुड़े निष्कर्ष प्रस्तुत करेंगे।
‘संदेशवाहक’ प्रशासन
हमारे शोध का पहला चरण यह समझना था कि स्थानीय अधिकारी शिक्षा क्षेत्र के पदानुक्रम में खुद को कहाँ देखते है? जब हमने साक्षात्कार देने वालों से पूछा कि शिक्षा प्रशासन में उनकी क्या भूमिका है तो ज़्यादातर ने खुद को एक ऐसी बड़ी मशीन का शक्तिहीन पुर्जा बताया, जिस पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है। साक्षात्कार देने वालों में से ज्यादातर ने खुद को ‘डाकिया’ या ‘रिपोर्टिंग मशीन’ बताया जिसे निर्णय लेने के बहुत कम अधिकार हैं। इसे निर्णय प्रक्रिया में अपनी भूमिका के बारे में उनकी समझ से बहुत अच्छी तरह समझा जा सकता है।
“अपेक्षा ? वह क्या होती है? ….. यह ब्लॉक रिसोर्स सेंटर है: यहाँ जिला स्तर के आदेश ही चलते हैं’।
“….. मैं क्या सलाह दे सकता हूं? मैं सरकारी नौकरी करता हूँ। मेरी पहली ज़िम्मेदारी है सरकारी आदेशों का सही तरीके से पालन, उसके बाद ही मैं अपनी कोई योजना बना सकता हूँ”।
“…… आखिरकार, सरकार जो चाहेगी, वही होगा”।
अय्यर और भट्टाचार्य (2015) के एक शोध पत्र के मुताबिक, खुद को महज “डाकखाना” मानने की यह प्रवृत्ति शिक्षा प्रशासन के सांगठनिक ढांचे में मौजूद है जिसकी खासियत है ऊपर से नीचे की नियम आधारित पदानुक्रम वाली नौकरशाही, जिसमें स्थानीय अधिकारियों के पास बहुत कम अधिकार होते हैं।[ii] और काम करवाने के अधिकार के अभाव में, अधिकारियों ने अधिकारहीनता का तर्क विकसित कर लिया है। अय्यर और भट्टाचार्य अपनी बात समझाने के लिए एक उत्तरदाता (BEO) का हवाला दिया, जिसका कहना था,
“प्रधानाध्यापक यहाँ आते हैं और मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं होता कि उसके अनुरोध या समस्या का क्या हुआ। मैं उन्हें जिला कार्यालय भेज देता हूँ …..मेरे पास कुछ करने का कोई अधिकार ही नहीं है”
पदानुक्रम और उसके फलस्वरूप निर्णय प्रक्रिया के केन्द्रीकरण की संस्कृति को राजनीतिविज्ञानी अक्षय मंगला (2014) “नियम-कानूनवादी संस्कृति” कहते है यानि ऐसी कार्यसंस्कृति जहां स्थानीय जरूरतों और प्राथमिकताओं की कीमत पर नियमों, पदानुक्रम और प्रक्रियाओं का कड़ाई से पालन किया जाता है।
“नियम-कानूनवादी तंत्र” में कर्मचारियों के लिए कार्य निष्पादन का अर्थ नागरिकों की जरूरतों का समाधान करना नहीं बल्कि केवल ऊपर से मिले आदेशों का पालन करना भर होता है। और इन आदेशों का पालन करते हुए स्थानीय अधिकारियों ने मान लिया है कि शिक्षा प्रशासन में उनकी भूमिका नियमों का पालन और सूचना एकत्र करने की है न कि स्कूल की जरूरतों को पूरा करने के लिए मुस्तैदी दिखाने की – और इस प्रकार वे अपने महज डाकिया होने के तर्क को वैधता प्रदान कर देते हैं । जैसा कि हमारे अध्ययन (साक्षात्कारों) से स्पष्ट है, बिहार इस नियम-कानूनवादी प्रशासनिक संस्कृति का बहुत अच्छा उदाहरण है।
बिहार के स्थानीय शिक्षा अधिकारी का आम कार्यदिवस
खुद को महज नियम पालन और आंकड़े इकठ्ठा करने वाला मानने की यह प्रवृत्ति कुछ प्रशासनिक कार्यों, जैसे बुनियादी ढांचे के निर्माण या छात्रववृत्ति और पेंशन का वितरण करवाने के लिए तो ठीक है। क्योंकि यहाँ प्रशासनिक चुनौती ही यह है कि आदेशों का समुचित पालन हो। लेकिन शिक्षा का मुद्दा कहीं अधिक जटिल है। इसकी परिकल्पना में ही स्थानीय शिक्षा अधिकारियों से महज आदेशों को आगे पहुँचने के अलावा भी कुछ योगदान देने की अपेक्षा की गयी है। उनसे उम्मीद की जाती है कि वे विद्यार्थियों को शिक्षित करने में सक्रिय भूमिका निभाएँ। ऐसे में, उनके महज “डाकिया” होने से स्कूलों की जरूरतों को समझने और विद्यार्थियों को शिक्षित करने की प्रक्रिया में कोई मदद मिलने के बजाय नुकसान ही होता है। क्लस्टर रिसोर्स सेंटर समन्वयक का उदाहरण लेते हैं।
1990 के दशक के अंतिम वर्षों में, विशेष रूप से स्कूलों और अध्यापकों को नियमित और निरंतर सहयोग प्रदान करने के लिए शिक्षा प्रशासन में क्लस्टर रिसोर्स सेंटर समन्वयक के पद का सृजन किया गया था।[iii] इस भूमिका के समुचित निर्वाह के लिए ज़रूरी है कि क्लस्टर रिसोर्स सेंटर समन्वयक स्कूलों में पर्याप्त समय बिताएँ और कक्षाओं के तौर-तरीकों को समझें, विद्यार्थियों के शैक्षिक स्तर को पहचानें तथा अध्यापकों के साथ संवाद करें। लेकिन हमारे समयोपयोग संबंधी सर्वेक्षणों के मुताबिक स्कूलों के अपने औसत दौरे में (जो आमतौर पर 1-2 घंटे का होता है) CRCC 10 से 20% से भी कम वक़्त कक्षाओं में बिताते है। बाकी वक़्त वे अपने वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा मांगे गए आंकड़ों को जुटाने के लिए रजिस्टरों की जांच करते हैं या प्रधानाध्यापकों या साथी शिक्षकों से गप्प मारते हैं (चित्र1) [iv]।
चित्र 1: क्लस्टर समन्वयकों द्वारा स्कूलों में बिताए गए समय का विभाजन
नियम-कानूनवादी संस्कृति के ही अनुरूप क्लस्टर रिसोर्स सेंटर समन्वयकों ने अध्यापकों के साथ जो थोड़ा-बहुत समय (कक्षाओं के अंदर और बाहर दोनों) बिताया भी, उसका उपयोग शिक्षकों को कुछ सिखाने या उनकी सहायता करने में नहीं, बल्कि अपना आधिपत्य जमाने में किया। कक्षाओं में तो क्लस्टर समन्वयकों ने अध्यापन कार्य को पूरी तरह अपने हाथ में ले लिया। उन्होंने विद्यार्थियों से तो बातचीत की लेकिन अध्यापकों को अध्यापन के तौर-तरीकों पर कभी कोई फीडबैक या सुझाव नहीं दिया[v]।
पदानुक्रम और आदेशों का यही व्याकरण क्लस्टर समन्वयकों और उनके वरिष्ठ अधिकारियों के संवादों में भी स्पष्ट दिखाई दिया। ब्लॉक या ज़िला अधिकारियों के साथ होने वाली मासिक बैठकें एकपक्षीय थीं, इनमें वरिष्ठ अधिकारी क्लस्टर समन्वयकों को प्रशासनिक मामलों से जुड़े आदेश देते थे। क्लस्टर समन्वयकों द्वारा समय प्रबंधन, उनके स्कूल दौरों के स्वरूप या शैक्षिक सलाहकार के रूप में उनकी भूमिका पर कोई चर्चा या बहस नहीं होती थी। जैसे, क्लस्टर समन्वयकों को शिक्षण और सीखने के प्रचलित तौर-तरीकों का निरीक्षण कर उसके आधार पर एक गुणवत्ता निगरानी प्रपत्र भरना होता है। लेकिन ब्लॉक कार्यालय द्वारा न तो कभी यह प्रपत्र मांगा गया, न कभी इस पर बहस या चर्चा की गयी, यानि, संदेश स्पष्ट है कि क्लस्टर समन्वयक के दायित्वों में अकादमिक निगरानी अंतिम प्राथमिकता है।
ऐसे समयोपयोग की व्याख्या यह कहकर भी की जा सकती है कि ऐसा व्यवहार संवेदनहीन, गैरजिम्मेदार और अनुशासनहीन नौकरशाही की खासियत है। लेकिन जब नियम-कानूनवादी संस्कृति और इसके द्वारा पोषित “डाकिया” प्रवृत्ति के नज़रिये से देखा जाए तो क्लस्टर रिसोर्स सेंटर समन्वयकों का व्यवहार बिलकुल सामान्य लगेगा! असल में, क्लस्टर समन्वयकों को एक विश्वसनीय अकादमिक सलाहकार या परामर्शदाता मानने का विचार ही उस नियम-कानूनवादी संस्कृति के खिलाफ है जिसके वे हिस्से हैं। ऐसी संस्कृति में परामर्शदाता समझने और उसी अनुरूप व्यवहार करने की प्रवृत्ति को विकसित करने की ज़रूरत है। लेकिन हमने वरिष्ठ अधिकारियों को क्लस्टर समन्वयकों के साथ ऐसा संवाद करते बहुत कम देखा जिससे पदानुक्रम की जगह परामर्शदाता प्रवृत्ति विकसित हो सके। ऐसे में, समन्वयक भी इसी पदानुक्रमिक आधार पर एक तरफ तो अध्यापकों से खुद को वरिष्ठ समझते हैं और दूसरी ओर अपने वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशों की प्रतीक्षा करने को ही उचित मानते हैं। साक्षात्कार के दौरान जब हमने समन्वयकों से पूछा कि क्या उनकी नज़र में उनकी भूमिका स्कूलों के अगुआ की है या सहयोगी की, तो सभी का एकमत से जवाब था कि वे खुद को एक ऐसी व्यवस्था का स्तम्भ मानते हैं, जिस पर उनका नियंत्रण बहुत कम है।
नतीजा यह कि क्लस्टर रिसोर्स सेंटर समन्वयक का कार्यदिवस कैसा होगा यह पूरी तरह वरिष्ठ अधिकारियों से मिले आदेशों पर निर्भर करता है। जब कोई आदेश न हो तो जैसा कि एक उत्तरदाता ने बताया, बाकी वक़्त, “आरामदेह स्थितियों में पूरी तरह से आराम करते हुए” बीतता है। स्कूल की जरूरतों पर ध्यान देने और शिक्षकों को परामर्श देने जैसे काम शिक्षा अधिकारी नहीं करते- और भारत के सरकारी शिक्षा तंत्र में सीखने पर इतना कम ध्यान दिये जाने की यह एक बड़ी वजह है।
टिप्पणियाँ
[i] समयोपयोग संबंधी अध्ययनों में हमने कार्यालयी समय के दौरान क्लस्टर रिसोर्स सेंटर समन्वयकों का निरीक्षण किया जब वे अपने दायित्वों का निर्वाह कर रहे थे।
[ii] ऊपर निर्णय नीचे पालन की यह प्रणाली कैसे काम करती है, इसके लिए देखें अय्यर इत्यादि(2014)
[iii]क्लस्टर रिसोर्स सेंटर समन्वयक पद के क्रमिक विकास के विस्तृत ब्यौरे के लिए देखें तारा इत्यादि (2010)
[iv]एकाउंटेबिलिटी इनीशिएटिव द्वारा इसी अवधि में हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में किए गए समयोपयोग के उपयोग संबंधी अध्ययनों में भी यही व्यवहारगत पैटर्न देखने को मिला।
[v] चार में से एक क्लस्टर रिसोर्स सेंटर समन्वयक अपवाद था। लेकिन उसका व्यवहार स्वप्रेरित था, उसमें व्यवस्थागत प्रोत्साहनों का कोई योगदान नहीं था।
और जानकारी के लिए देखें
- Aiyar, Y, A Dongre, A Kapur, AN Mukherjee and TR Raghunandan (2014), ‘Rules vs. Responsiveness: Towards building and outcomes-focused approach to governing elementary education finances’, PAISA, Accountability Initiative, Centre for Policy Research.
- Aiyar, Y and S Bhattacharya (2015), ‘The Post Office Paradox: A case study of the Block Level Education Bureaucracy’, Accountability Initiative, Centre for Policy Research.
- Béteille, T (2009), ‘Absenteeism, Transfers and Patronage: The Political Economy of Teacher Labor Markets in India’, Dissertation, Stanford University.
- Chaudhury Nazmul, Jeffrey Hammer, Michael Kremer, Karthik Muralidharan, F. Halsey Rogers (2006), “Missing in Action: Teacher and Health Worker Absence in Developing Countries”, Journal of Economic Perspectives, Vol. 20, No. 1, pp 91-116.
- Das, Jishnu, Jeffrey Hammer, Kenneth Leonard (2008), “The Quality of Medical Advice in Low-Income Countries”, Journal of Economic Perspectives, 22(2): 93-114. Retrieved from https://www.aeaweb.org/articles.php?doi=10.1257/jep.22.2.93
- Mangla, A (2014), ‘Bureaucratic Norms and State Capacity: Implementing Primary Education in India’s Himalayan Region’, Working Paper 14-099, Retrieved from Harvard Business School.
- Muralidharan K, J Das, A Holla and A Mohpal (2014), ‘The Fiscal Cost of Weak Governance: Evidence from Teacher Absence in India’, Working Paper 20299, National Bureau of Economic Research.
- Pritchett Lant and Michael Woolcock (2004), “Solutions When the Solution Is the Problem: Arraying the Disarray in Development”, World Development, Vol. 32, No. 2, pp 191-212.
- Tara, N, S Kumar and S Ramaswamy (2010), ‘Study of Effectiveness of BRCs and CRCs in Providing Academic Support to Elementary Schools’, Commissioned by EdCIL’s Technical Support Group for SSA, on behalf of Department of School Education and Literacy, Ministry of Human Resource Development, Government of India. Retrieved from http://www.educationforallinindia.com/report_on_block_cluster_resource_centres-providing-academic_support-2010.pdf
- Wade, Robert (1985), “The Market for Public Office: Why the Indian State is not Better at Development?”, World Development, Vol. 13, No. 4, pp. 467-497.