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सूचना का अधिकार- एक पहलु यह भी…

Indresh Sharma

1 January 1970

This is the third part of an eight-part series on the challenges and life hacks in experiencing and accessing government benefits and services. 

वर्ष 2005 से सरकारी निकायों में समाज के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने के मकसद से सूचना का अधिकार क़ानून एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में उभरा है। इस कानून का मकसद सरकारी महकमों की जवाबदेही तय करना और पारदर्शिता लाना है ताकि भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके । हालांकि इस क़ानून का उद्देश्य काफी हद तक पूरा भी हुआ है । यह अधिकार आपको ताकतवर तो बनाता है लेकिन साथ में कई बार इस क़ानून से जुड़े ऐसे भी मामले सामने आते हैं जिसमें आवेदनकर्ता को मुख्य मुद्दे से भटकाने के प्रयास किये जाते हैं ।

मैं आज आपसे इसी विषय को लेते हुए अपने मित्र अरुण के साथ हुई एक वास्तविक घटनाक्रम को साझा कर रहा हूँ । अरुण पेशे से स्वयं का डेयरी फ़ार्म चलाते हैं । उनकी पत्नी गाँव के एक सरकारी विद्यालय में मध्याहन भोजन बनाने का काम करती हैं । इसके अलावा आमदनी का और कोई ठोस माध्यम नहीं है ।

यह बात 2 वर्ष पूर्व की है जब पंचायत प्रधान एवं उसके पति द्वारा एक सड़क गाँव से मुख्य सड़क तक जोड़ने के लिए बनायी जा रही थी । अरुण को सूचना मिली कि पंचायत प्रधान का पति JCB मशीन की मदद से एक सड़क बना रहा है । अरुण मौके का मुआयना करने गए तो उन्होंने देखा कि जिस जगह से सड़क निकाली जा रही थी वह एक सरकारी वन भूमि है और जिसमें कुछ पेड़ भी काटे जा रहे थे ।

अरुण ने मौके पर पहुंचकर इस कार्य के बारे में जानने के लिए प्रधान के पति से बातचीत करनी चाही जिसपर उसने अरुण को धमकाना शुरू कर किया और इस कार्य में हस्तक्षेप न करने की चेतावनी दी । अरुण को यह सब कुछ बहुत अजीब लग रहा था क्योंकि गाँव में पहले से ही सड़क मौजूद थी जो मुख्य सड़क को जोड़ती थी और इस सड़क के बनने के बाद भी मुख्य सड़क की दूरी केवल 1 किलोमीटर ही कम होनी थी तो ऐसे में इस सड़क को बनाने का क्या औचित्य था ? इन्ही सब सवालों के साथ अरुण ने जिला वन अधिकारी के नाम से एक आरटीआई दायर की जिसमें उन्होंने सूचना मांगी कि क्या वन विभाग को इस कार्य की जानकारी है ? यदि हाँ तो क्या मौके पर कार्य का निरिक्षण किया गया है और इसमें क्या-क्या कदम उठाये गए हैं ?

एक सप्ताह के बाद जिला वन अधिकारी द्वारा अरुण को फ़ोन आया जिसमें उन्होंने कहा कि इस कार्य की विभाग को कोई जानकारी नहीं है लेकिन मौके पर जाकर इसका निरिक्षण किया जायेगा और इस पर उपयुक्त कार्यवाई की जाएगी । इसी बीच सड़क निर्माण कार्य को भी रोक दिया गया ।

लगभग 1 महीने के बाद अरुण को जिला वन अधिकारी के दफ्तर से आरटीआई का जवाब और जुर्माना की गयी राशि की छायाप्रति प्राप्त हुई । इसके अनुसार उपरोक्त कार्य का निरिक्षण रेंज ऑफिसर और फ़ॉरेस्ट गार्ड द्वारा किया गया और पंचायत को दोषी मानते हुए उसके ऊपर 15000 रूपए का जुर्माना किया गया है । अरुण जवाब से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि वह यह जानते थे कि इस कार्य में बहुत नुकसान हुआ है अतः जुर्माना भी अधिक होना चाहिए था । अरुण को सूत्रों से पता चला कि जिला वन अधिकारी एवं महिला पंचायत प्रधान आपस में रिश्तेदार हैं । अरुण को समझ आ रहा था कि इस वजह से ये लोग क़ानून को ताक पर रखकर अपनी मनमर्जी कर रहे हैं जिसमें ये सभी आपस में बराबर एक दूसरे के संपर्क में थे । अरुण ने इसके बाद वन विभाग के चीफ कन्सर्वेटर अधिकारी के नाम से आरटीआई दायर की जिसमें उन्होंने पिछले आवेदन एवं जिला वन अधिकारी द्वारा दी गयी जानकारी को संलग्न किया । अरुण ने अधिकारी से इस पूरे प्रकरण की पुनः जांच करने का अनुरोध किया ।

कुछ दिनों के बाद चीफ कन्सर्वेटर अधिकारी ने स्वयं अरुण को फ़ोन करके इस कार्य कि जांच कराने का आश्वासन दिया और भरोसा दिलाया कि यदि इसमें किसी भी प्रकार की अनियमितता पायी गयी तो इसमें लिप्त दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्यवाई की जायेगी ।

इस बीच एक रात अरुण को अपने घर की गौशाला में बहुत तेज आग की लपटें दिखाई दीं । बाहर आकर अरुण ने आग बुझाने का प्रयास किया लेकिन आग की लपटें इतनी तेज थीं कि काबू पाना मुश्किल हो रहा था ।  अरुण की पत्नी ने बहुत जल्दी से गाँव के कुछ लोगों को इकठ्ठा करके आग बुझाने की कोशिश की । 1 घंटे तक यह सब चलता रहा और काफी प्रयास करने पर अरुण और कुछ लोगों ने सभी तीन गायों को बाहर निकाला जो बुरी तरह से  झुलस चुकी थीं और उनमें से एक गाय की ज्यादा जलने से मौत हो गयी । अरुण ने गायों का इलाज करने के लिए डॉक्टर को बुलाया जिसमें डॉक्टर के अनुसार बची हुई गायें बहुत ज्यादा जलने की वजह से उन्हें ठीक होने में काफी समय लगना था । तीन दिन बीतने के बाद अरुण की एक और गाय ने दम तोड़ दिया । अरुण और उसका परिवार बुरी तरह से सदमे में थे और अरुण के मुताबिक़ उसे समझ आ रहा था कि इस सबके पीछे प्रधान के पति का ही हाथ था । लेकिन अरुण जानते थे कि प्रधान एवं उसके पति के आर्थिक रूप से अधिक संपन्न होने की वजह से वह इस सबमें ज्यादा कुछ साबित नहीं कर पाएंगे ।

कुछ दिनों के बाद वन विभाग के चीफ कन्सर्वेटर की ओर से अरुण को लिखित जवाब और सड़क कार्य में की गयी कार्यवाई वाला दस्तावेज प्राप्त हुआ । जिसके अनुसार पूरी जांच करने के बाद जिला वन अधिकारी एवं रेंज ऑफिसर और फॉरेस्ट गार्ड को इस पूरे प्रकरण में दोषी मानते हुए निलंबित कर दिया और उन पर  कुल 1 लाख रूपए का जुर्माना भी किया गया । जिस जगह से सड़क निकाली जा रही थी उसे बाड़ लगाकर सील कर दिया गया ।

अरुण आज भी डेयरी का ही काम करते हैं लेकिन इस पूरी घटना से अरुण की आर्थिक एवं मानसिक स्थिति पर कितना प्रभाव पड़ा इसका आकलन करना मुश्किल है ।

इस बात से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता कि आरटीआई एक बहुत शक्तिशाली उपकरण के रूप में उभरा है लेकिन यह भी सच है कि इस क़ानून के अस्तित्व में आने के बाद से ही कई तरह की घटनाएं सामने आती रही हैं । अतः सरकार को यह शायद सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि जिस प्रकार आवेदनकर्ता को सूचना पाने का हक़ उसका अधिकार है, उसी प्रकार उसकी सुरक्षा के लिए भी इस कानून में संशोधन किया जाना परम आवश्यक है ताकि आवेदनकर्ता भयमुक्त होकर भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी लड़ाई लड़ सके ।


कुछ सुझाव…

आवेदनकर्ता को अंदेशा हो कि उसके जान-माल की हानि हो सकती है तो ऐसी स्थिति में:

  • वह जहाँ पर अपील कर रहा है वहीं के लिए एक अपनी तरफ से सचेत पत्र भी लिखे । इस पत्र में आवेदनकर्ता स्वयं एवं उन सभी व्यक्तियों के बारे में जानकारी साझा करे जिनसे उसे नुकसान होने की आशंका हो । पत्र की प्रतिलिपि जिला उपायुक्त, उप प्रभागीय न्यायाधीश एवं स्थानीय पुलिस अधिकारी के नाम से अवश्य करें
  • इस प्रकार के पत्र हमेशा रजिस्टर्ड पोस्ट द्वारा ही भेजे जाने चाहिए जिस पर कोई भी विभाग निश्चित रूप से ध्यान देते हैं
  • ऐसे किसी भी पत्र, शिकायत एवं अपील की एक कॉपी हमेशा अपने पास संभाल कर रखें ताकि समय आने पर वह काम आ सके
  • पूरी जानकारी एवं आवश्यक दस्तावेज अपने ख़ास विश्वासपात्र लोगों के साथ अवश्य साझा करने चाहिए ताकि यदि आवेदनकर्ता के ऊपर किसी प्रकार का कोई भी संकट आये तो वे लोग भी दृढ़तापूर्वक उसके पक्ष में अपनी बात रख सकें

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